मायाचारी करके महापाप का बन्ध
मायाचारी करने से महापाप का बन्ध होता है ।
अन्य क्षेत्रे कृतं पापों,पुण्य क्षेत्रे विनश्यति।
पुण्य क्षेत्रे कृतं पापं, वज्रलेपो भविष्यति ।।
अन्य क्षेत्र में पाप किया, तो पुण्य क्षेत्र में तू समाप्त कर सकता है ।यदि धर्म क्षेत्र में ही तूने काषायिक भाव किया, माया, छल- कपट किया, तो उसको ठीक करने कहाँ जायेगा? इसलिए ज्ञानियों! सुधी बनो, सदबुध्दि बनो।सदबुध्दि सिद्धि दायनी 'जो सदबुध्दि है, वही सिद्धि दे सकती है और जिसकी बुद्धि दुर्बुध्दि है, उसको प्रसिद्धि तो मिल सकती है, लेकिन सिद्धि नहीं मिल सकती ।भैया! ये मोक्ष मार्ग प्रसिद्धि का मार्ग नहीं है।क्योंकि प्रसिद्धि आत्मा धीन नहीं,पराधीन है, जबकि सिद्धि पराधीन नहीं,स्वाधीन है ।प्रसिद्धि पराधीन है अर्थात यशःकीर्ति कर्म के आधीन है ।प्रसिद्धि कर्म है, आत्मा का धर्म नहीं है ।मन्दिर में कहता है, भगवान!मेरे कर्म का क्षय हो और लोक में मेरी ख्याति फैल जाय। हे ज्ञानी! जब कर्म का क्षय चाहता है और लोक में ख्याति फैल जाये, तो तू कर्म ही तो माँग रहा है ख्याति तब फैलैगी, जब यशःकीर्ति कर्म होगा।बिना यशःकीर्ति कर्म के ख्याति फैलती नहीं है ।इसलिए यश,ख्याति, धन से धर्म की तुलना मत करना ।
धर्म तो आत्मा का स्वभाव है ।उसका नाम उत्तम क्षमादिभाव है, अहिंसा भाव है ।आजकल धर्मात्माओं ने धर्म की परिभाषा ही बदल दी है ।न कोई मेरा मठ है,न कोई मेरा मन्दिर है ।जिस दिन मठ या मन्दिर में लिप्त हो जाऊँगा, तो जिनवाणी नहीं सुना पाऊँगा ।फिर प्रवचन की भाषा बदल जायेगी ।इसलिए मन्दिर या धार्मिक सम्पत्ति पर अपना कब्जा (अधिकार) नहीं जमाना चाहिए नाहीं मन्दिर का द्रव्य स्वयं खाना चाहिए और नाहीं खाने की प्रेरणा देनी चाहिए ये बात आचार्य विभक्त सागर जी मुनिराज ने प्रवचनके माध्यम से आचार्य महावीर कीर्ति दिगम्बर जैन मन्दिर अवागढ में कहा था इस अवसर पर जैन समाज के महिलाओं पुरूषों के साथ- साथ अवागढ समाज के महिलाओं पुरूषों ने भी भाग लेकर पुण्यार्जन किया ।आचार्य विभक्त सागर जी मुनिराज
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