तप


 साक्षात ही तप है 

मैं यदि दुःख में हूँ तो हिंसा में हूँ। मैं यदि आनंद में हो जाऊँ तो अहिंसा में हो जाऊँगा। इसलिए स्मरणीय है कि अहिंसा की नहीं जाती है। वह क्रिया नहीं सत्ता है। उसका संबन्ध कुछ करने से नहीं, कुछ होने से है। वह आचार-परिवर्तन नहीं, आत्म क्राँति है। दुःख से जो प्रवाहित होता है, वह हिंसा है। आनंद से जो प्रवाहित होता है, वह हिंसा-निरोध है। मैं क्या करता हूँ, यह सवाल नहीं है। मैं क्या हूँ, यह सवाल है। मैं दुःखी हूँ या आनंदमयी हूँ यह प्रत्येक को अपने से पूछना है। उस उत्तर पर ही सब कुछ निर्भर करता है। तथाकथित आनंद के पीछे झाँकना है, भुलावों और आत्मवंचनाओं के आवरणों को उघाड़कर देखना है। उसे ‘जो वस्तुतः है’ जानने को स्वयं के समक्ष नग्न होना जरूरी है। आवरणों के हटते ही दुःख की अतल गहराइयाँ अनुभव होती हैं। घने अंधेरे और संताप का दुःख अनुभव होता है। भय लगता है, वापिस अपने आवरण को ओढ़ लेने का मन होता है। इस भाँति- भयभीत होकर जो अपने दुःख को ढाँक लेते हैं, वह कभी आनंद को उपलींध नहीं होते हैं। दुःख को ढांकना नहीं, मिटाना है और उसे मिटाने के लिए उसका साक्षात करना होता है। यह साक्षात ही तप है।

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