वैराग्य एक ऐसा बवाल है जिसे पकड़ना है मुश्किल


"क्षमा वीरस्य भूषणं" से पहले "पुरूषार्थ वीरस्य भूषणं" का होना अत्यन्त आवश्यक है -पीएम. जैन "पापी"

आज क्या बीते युगों से ही वैराग्य एक ऐसा बवाल रहा है जिसे पकडना और पकड़कर रखना हर किसी के वश की बात नहीं है| इस वैराग्य का जरा छलियापन तो देखो कि यह संसार के अनेकों  व्यक्तियों को सदियों से छल रहा है | जबकि वैराग्य संसार के प्रत्येक व्यक्ति को उत्पन्न होता है| 

गौरतलब है कि यह वैराग्य कहीं उत्पन्न हो ना हो लेकिन शमशान में एक बार जरूर उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर मिट जाता है|

संसार की बात करें तो इस छलिया किस्म के शमशानी वैराग्य को किसी ने परास्त किया है तो वह हमारे प्रात: स्मरणीय परम् पूज्य वीर,महावीर,अतिवीर जैसे महापुरूषों ने ही परास्त किया है| ऐसे वीर, महावीर और अतिवीर जैसे महापुरूष आज भी हमारे बीच महामुनिराज रूप में विराजमान हैं और अनेकों पूज्यवर विचरण भी कर रहे हैं जिनके समक्ष एक ही बार छलिया वैराग्य उत्पन्न होकर आया लेकिन उनके तेज प्रतापी पुण्य और दृढ़ संकल्प की गिरफ्त से वापिस निकल नहीं पाया| 

गिरफ्त में आये इसी वैराग्य ने आगे चलकर उस सच्चा वैरागी को वीतरागी बना दिया! क्योंकि हमारे पूज्यवरों ने छलिया किस्म के वैराग्य को मनमानी करने के लिए बावला नहीं होने दिया क्योंकि बावला ही बवाली होता है|

 दुनिया में जिस तरह बड़े-बड़े औहदों पर बड़े-बड़े अधिकारी होते हैं उन सभी अधिकारियों के पास एक अर्दली अवश्य होता है और जब हमें किसी बड़े अधिकारी से मिलना होता है तो उससे पहले अर्दली से ही मिलना पड़ता है !उसी भाँति बड़े-बड़े वीतरागियों से मिलने के पहले किसी व्यक्ति को वैराग्य रूपी अर्दली से मिलना पड़ता है| अत: मेरा मानना है कि👇👇

👉"हमें बड़े सहाब से मिलना है, वह बड़ी मुश्किल से मिलते हैं और बड़े सहाब से पहले तो "अर्दली सहाब" ही मिलते हैं||"

अरे,सहाब वैराग्य तो बवाली है लेकिन वह कहता है कि मैं तो प्रत्येक इंसान का हितैषी हूँ, वीतरागियों का सहपाठी हूँ, प्रत्येक व्यक्ति व प्रत्येक जीव को जन्म मरण के चक्कर से छुड़ाने के वास्ते उनको वैरागी बनाकर वीतरागी बनाने के लिए उनके पास जाता भी हूँ लेकिन जिनके पास जाता हूँ उनमें से अधिकाँश लोगों के पास दृढ़ता और पुण्य का पासा न होने के कारण उनके पास टिक नहीं पाता हूँ|

कलयुग की चकाचौंध और भागदौड़ को देखते हुए मैं आज भी व्यक्तियों को मंदिर सहित एकाँत में तलाशता हूँ लेकिन वह मंदिरों में कम और शमशानों में अधिक एकाग्रता के साथ शाँत और आपसी प्रेमभाव के साथ एकजुट मिलते हैं तो मैं उनके दिल-दिमाग की घंटियाँ बजा देता हूँ लेकिन वहाँ पर भी जैसे-जैसे चिता की अग्नि मंद होती जाती है वैसे-वैसे इनकी दृढ़ता की मर्यादा भी मंद पड़ती जाती है और मैं इनके हाथों से फिसल जाता हूँ|

ज्ञानी मैं वैराग्य हूँ मैं शमशान में प्रकट होकर आँऊ या सत्संग में लेकिन आप सभी संसारियों का हितैषी हूँ, अगर आप भी वीतरागी बनना चाहते हैं तो मेरे सच्चे सहपाठी तपस्वी वैरागियों के साथ बैठकर दृढ़ता के साथ पुण्य रूपी मन की पात्रता को मजबूत कीजिए क्योंकि मुझे एक "पापी" ने बतलाया कि "क्षमा वीरस्य भूषणं" से पूर्व "पुरूषार्थ वीरस्य भूषणं" का होना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि पुरूषार्थ के बिना क्षमा क्या सब कुछ असम्भव है|-पीएम. जैन "पापी" दिल्ली मोबाइल नं. 9718544977

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