पंमम काल में जैन धर्म का स्वरूप

पंचम काल में जैन धर्म का स्वरुप ,प्रचार- प्रसार- प्रभावना के नाम पर :- 👉मंदिर जी में 5000/- रुपये दान दिये.. अपना नाम शिला पर अंकित करा लिया ! 👉मंदिर जी में चित्र, फोटो, कलर या पेटिंग करवाने पर अपना नाम लिखवा देते हैं। 👉मंदिर जी में पंखा देने वाले पंखे की पंखुड़ी पर अपना नाम लिखवा देते हैं! 👉पत्थर लगवाने वाले, फर्श पर, दीवारों पर अपना नाम लिखवा देते हैं ! 👉वेदी बनवाने के लिए कुछ पैसे दे दिए, तो वेदी पर ही नाम अंकित करवा दिया ! 👉अलमारी/चौकी/मेज/बर्तन जो दिए उस पर ही नाम लिखवा दिया ! *याद रखें...* मेरा नाम हो, के अभिप्राय से दिया हुआ अरबों-खरबों का दान भी निष्फल है, कु-दान है ! ऐसा सोच कर दान देने वाले लोग फलीभूत नहीं होते हैं। *पाप एकत्रित करने के लिए और भी स्कीमें खोज ली गयीं हैं :-* 👉🏿पूजा-प्रक्षाल अब भक्ति-भाव से नहीं पैसों से होने लगी है ! मंदिर जी में नई रीती चालू कर दी... ★शांतिधारा की भी बोली लगाने लगे। ★पहला अभिषेक कौन करेगा, उसकी भी बोली... और पैसे की कमी किस पे है, इसी कारण *मंदिर जी में लोगों के अहं भी टकराने लगे हैं !* पूजा का भाव तो खैर शून्य ही हो गया ! अगर अब भी विरोध नहीं किया तो शायद आने वाले समय में सबसे पहले दर्शन करने वाले की भी बोली लगने लगे !!! 👉🏿 *स्वर्ण कलश, रजत कलश इसमें भी बोली-व्यापार !* पहले कलश की राशि 1,11,000/-, दूसरे की 51,000/- इत्यादि... फिर चाहे राशि देने वाला कर्ज़दार हो या उसकी आय का स्रोत बेईमानी ही हो... उससे किसी को कोई मतलब नहीं ! समाज में, मेले-ठेले में नाम हो, सो अनीतिपूर्वक कमाया हुआ धन दान में दे दिया... 👉🏿 *लॉटरी भी चालू हो गयी...* पुरस्कार का प्रलोभन देकर कलश बेचे जा रहे हैं ! आप कांस्य कलश खरीदें, अगर आपके नाम की पर्ची निकली तो पुरस्कार मिलेगा ! और इस सब को करने के लिए बड़े-बड़े हज़ारों लाखों करोड़ों रुपये के मंच बनाये जाते हैं ! *पाप कमाने की स्कीमें और भी हैं, जैसे :-* 👉चित्र-अनावरण, 👉दीप -प्रज्वलन, 👉आरती की बोली, 👉झंडारोहण, 👉पुस्तक-विमोचन, 👉चातुर्मास कलश स्थापना की बोलियाँ हे भगवान् ! इसे कोई रोक नहीं सकता..? *किसी साधू को भी कोई मतलब नही इस धंधे से..?* कोई रोकने वाला नहीं हैं ! 👉🏿 *क्या यही जैन धर्म का सच्चा स्वरुप है ?* सच तो यह है कि *हम सिर्फ मंदिर जी मे जाकर पूजा करने को ही धर्म समझ बैठे हैं... और जैन धर्म के 5 मूल सिद्धांत (सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य) भूल गए हैं।* अनजाने में हम स्वयं को धार्मिक समझ रहे हैं.. और अपने कर्मो पर किसी का भी ध्यान नही है... यही हमारी अधोगति का कारण है। किसी ने पूछा कि... *संसार का आठवां आश्चर्य क्या है..?* जवाब था.. *यह जानते हुए भी कि हम जो कर रहे हैं इसका फल बुरा होगा.. फिर भी बुरे कर्म करते जाना ही संसार का आठवां आश्चर्य है

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