कैसी वैराग्यता
धन नहीं तो धन से वैराग्य आखिर क्यों ?
वह दिन दफा हुए जब धनाढय लोगों एवं चक्रवर्ती राजाओं को धन, वैभव इत्यादि से वैराग्य हुआ करता था लेकिन आज के युग में दृष्टि दौड़ाई जायें तो अधिकाँश तौर पर उन लोगों को वैराग्य अधिक उमड़ रहा है जिनके जीवन में सदैव धन व सुख साधनों का अभाव ही रहा है और वैराग्य के उपराँत वैरागी-संन्यासी बनकर अभाव की पूर्ति कर रहे हैं |
आज भी कुछ विरले पुण्यात्मा लोग हैं जिनके पास सर्व सम्पदा थी लेकिन वास्विक वैराग्य उत्पन्न होते ही उन्होंने सब कुछ वैराग्यता की अग्नि में झोक दिया अर्थात सर्व सम्पदा का त्याग करके वैरागी,संन्यासी हो गयें और ऐसे पुण्यात्मा लोगों ने स्वयं की सर्व सम्पदा एवं सुख सुविधाओं की ओर मुड़कर भी नहीं देखा कुछ पुण्यात्मा लोगों का पूर्व जन्म का पुण्य जन्म से ही इतना तीव्र होता है कि वह अभाव में जन्मे हैं लेकिन वैराग्य के उपराँत भी सर्व सम्पदा की ओर नहीं दौड़े और स्व-पर के कल्याण में ही आपना जीवन बिता दिया| वास्तविक वैराग्य की महत्ता समझी जाये तो ऐसे वैरागी ही वीतरागी पथ पर अग्रसर होने के योग्य हैं और स्व-पर का कल्याण करते हैं |
धार्मिक दृष्टि से दृष्टि दौड़ाई जायें तो त्याग उसी वस्तु का फलदायी होता है जो वस्तु व्यक्ति की गिरफ्त में हो ,उसके पास हो, उस वस्तु का उपभोक्ता हो किन्तु उस वस्तु का कैसा त्याग जिस वस्तु का व्यक्ति के जीवन में उपभोग ही नहीं है| लेकिन
आज के युग में काल प्रभाव कहा जाये या मानसिक अभिलाषा कि आज कुछ लोगों को श्मशानी वैराग्य उत्पन्न होते ही वह संन्यासी बन जाते हैं और क्षणिक समय के उपराँत ही वह लोग धन, वैभव जुटानें में जुटे जाते हैं अर्थात दाम-नाम-धाम की प्राप्ति ही जीवन का मूल उद्देश्य बन जाता है|
श्मशानी वैराग्य एक ऐसा वैराग्य है जो हर व्यक्ति को उत्पन्न होता है यह अधिकाँश तौर पर जब उत्पन्न होता है जब व्यक्ति किसी के शवदाह हेतु श्मशान में बैठा होता है लेकिन घर आकर सारी वैराग्यता भूल जाता है और 99 के चक्कर में फिर से लिप्त हो जाता है | ऐसे ही श्मशानी वैराग्य की चपेट के मारे कुछ वैरागी- संन्यायी, साधु-संत, महात्मा संसार में भ्रमणशील हैं जिनका इतिहास खखोला जाये तो वह सर्व सम्पदा के अभाव से ग्रस्त ही निकलेंगे,जो जनता के सामने धर्म के नाम पर लच्छेदार बातें सुनाते है और पीठ-पीछे सर्व सम्पदा की पूर्ति के पूरक बने हुए हैं|
सर्वमान्य है कि सीता के हरण के लिए रावण ने भी एक संत का भेष धारण किया था क्योंकि असली भेष में रावण के पास सीता जी को हरण करने की सामर्थ्य ही नहीं थी| आज भी अधिकाँश तौर पर धन के त्यागी- संन्यासी रावण की भाँति इंन्सानित का हरण करने में संलग्न हैं |
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