20 वीं सदी के वात्सल्य मूर्ति आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज "रत्नाकर"
साधु का महत्वपूर्ण लक्षण
साधु का बहुत बडा़ लक्षण 'अपरिग्रह' है। जो व्यक्ति साधु भेष धारण करके भी अपनी सुख- सुविधा के लिए हर तरह से सुख- सामग्री एकत्रित करता रहे, उसे ढोंगी ही कहना पडे़गा, क्योंकि यदि उसे सुख सामग्रीयों की इतनी लालसा है तो गृहस्थ- जीवन को त्यागकर साधु बनने की आवश्यकता ही क्या थी? गृहस्थ में अगर वह परिश्रम करके धोपार्जन करता
और उससे इच्छानुसार आराम का जीवन व्यतीत करता तो उसकी तरफ कोई विशेष ध्यान नहीं देता। यदि कोई व्यक्ति 'साधु' बनकर परिश्रम करना बंद कर दे और तब भी सुख- सामग्री को संग्रह करे, उन पर अपना स्वामित्व स्थापित करने की लालसा या फिक्र में लगा रहे, तो वह समाज के आगे एक दूषित उदाहरण उपस्थित करने का दोषी ही समझा जायेगा।
20 वीं सदी के वात्सल्य मूर्ति आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज "रत्नाकर"
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